कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँप्रकाश माहेश्वरी
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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।
कर्मयोगी
मीरज जंक्शन आ गया था। गाड़ी बदलने के लिए मुझे यहाँ उतरना पड़ता था। पुल पार कर मैं दूसरे प्लेटफार्म पर गया। मेरी गाड़ी आने में अभी देर थी। वहीं एक बैंच पर बैठ इंतज़ार करने लगा। तभी एक पॉलिश वाला बच्चा आया, ''...पालिस...पालिस...सा बंजी पॉलिस?''
और मेरे सामने खड़े हो आशा भरी नज़रों से मुझे निहारने लगा।
मैंने अपने जूतों की ओर देखा। सफ़र में काफी गंदे हो गए थे। खोलकर उसके सामने कर दिए। वह फुर्ती से बैठ मनोयोग से उन्हें चमकाने लगा। बरबस मुझे डेढ़-दो वर्ष पुरानी एक घटना स्मरण हो आई। तब भी गाड़ी बदलने मैं उतरा था। अभी मुश्किल से पंद्रह-बीस कदम चला था कि चौदह-पंद्रह वर्षीय एक लड़का साथ-साथ चलने लगा, ''साहेबजी...ले चलूँ?''
''नहीं भाई।''
''ले चलने दो न, साहेबजी...'' वह आर्त्त स्वर में गिड़गिड़ाने लगा, ''...दो रुपया दे देना?''
''अरे भई कहा न-नहीं। हल्का-सा लगेज है...''
''तो एक रुपया ही दे देना। ले चलने दो साहेबजी...बड़ी मेहरबानी होगी, दो दिनों से भूखा हूँ...''
हैरत से रुककर मैंने उसकी ओर देखा। फटी कमीज, फटी निकर, बिखरे बाल, नंगे पैर...। सामान्यतः ऐसे बच्चे 'भूखे' होने का बहाना कर 'भीख' माँगते हैं, यह पहला लड़का दिखा जो भूखा होने की 'दुहाई' दे 'काम' माँग रहा था!
''अरे वाह!'' मेरे मुख से बेसाख्ता निकल गया, ''...तुम्हारी यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी। भूखे होने के बावजूद तुम 'काम' माँग रहे हो 'भीख' नहीं...''
''...पहले मैं भी माँगता था साहेबजी...'' सूटकेस की ओर बढ़ रहे उसके हाथ यकायक सकुचा गए।
''...तुम!''
''हाँ साहेबजी।'' आँखें झुका वह हौले से बुदबुदाया।
मैं कुछ समझ नहीं पाया।
होंठ भींच उसने धीरे-से नज़रें उठाईं, ''मैं तो जन्म से भिखमंगा था...न माँ न बाप..., इधर-उधर माँग-मूँग कर खा लिया...किसी का फेंका हुआ उठा लिया...''
''फिर?''
''एक बार एक औरत मिली...यही इसी टेसन पर...वो जो तीन नंबर (प्लेटफॉर्म) है न..., वहाँ...उस घड़ी के नीचे...''धोंडू अपने अतीत को सुनाने लगा।
....6-7 महीने हो गए। धोंडू यानी वह लड़का उस दिन भी...अपनी रोज़ की आदत के मुताबिक मुसाफ़िरों से भीख माँग रहा था। वह महिला अपने बच्चे के संग बेंच पर बैठी ट्रेन का इंतज़ार कर रही थी। धोंडू उनके सम्मुख हाथ पसारकर खड़ा हो गया था।
'मेम साहेब?'
'क्या है?'
'कुछ खाने को दो न? भूख लगी है।'
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- कर्मयोगी
- कालिख
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